विकास क्या है –
➥ विकास एक व्यापक शब्द है।
➥ इसका संबंध शरीर व मन में होने वाले परिवर्तन से है।
➥ यह दीर्घकालीन होता है।
➥ विकास में अभिवृद्धि या ग्रोथ को शामिल किया जाता है।
विकास से संबंधित परिभाषा
गोर्डन के अनुसार-
“विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो जन्म से तब तक चलती है, जब तक विकास की पूर्ण स्थिति प्राप्त न हो”।
हरलाॅक के अनुसार-
“विकास के परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन योग्यता व क्षमता का विकास होता है”।
गैसल के अनुसार-
“विकास एक परिवर्तन है जिसके द्वारा बालक में नवीन गुणों का विकास होता है”।
गोडार्ड के अनुसार-
“विकास प्रक्रिया में सुखद व दुखद दोनों प्रकार के परिवर्तन आते हैं”।
स्किनर के अनुसार-
विकास एक सतत एवं धीमी प्रक्रिया है।
वुडवर्थ के अनुसार-
विकास वातावरण एवं वंशानुक्रम का गुणनफल है।
अभिवृद्धि या वृद्धि क्या है
➥ यह एक संकुचित शब्द है।
➥ वृद्धि कुछ समय के बाद रूक जाती है।
➥ इसका तात्पर्य शरीर व इसके विभिन्न अव्यव से होता है।
➥ इसकी कोई निश्चित दिशा नहीं होती है।
वृद्धि एवं विकास में अन्तर
वृद्धि | विकास |
---|---|
यह वाह्य रूप होता है। | यह आंतरिक रूप है। |
यह संकुचित शब्द है। | यह व्यापक शब्द है। |
कुछ समय बाद वृद्धि रूक जाती है। | विकास जीवन पर्यन्त चलता है। |
इसकी कोई निश्चित दिशा नहीं होती। | निश्चित दिशा होती है। |
यह केवल परिपक्वता तक ही सीमित है। | यह जीवन पर्यन्त चलने वाला है। |
शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तन ही दर्शाता है | इसमें सार्वभौमिक परिवर्तन होते हैं। |
संख्यात्मक एवं मात्रात्मक होता है। | गुणात्मक व संख्यात्मक होता है। |
निश्चित क्रम नहीं है। | निश्चित क्रम है |
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विकास वृद्धि के सिद्धांत/नियम
समान प्रतिमानों का नियम-
एक ही जात के जीवों का विकास समान गति से होता है मनुष्य जाति के विकास पर यही सिद्धांत लागू होता है मनुष्य चाहे भारत में पैदा हो चाहे श्रीलंका में।
सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का नियम-
बालक का विकास सामान्य क्रियाओं से विशिष्टता की ओर होता है।
विभिन्नता का नियम-
विकास का क्रम एक सामान्य हो सकता है परंतु उसकी गति एक समान नहीं हो सकती। क्योंकि विकास शैशवावस्था एवं किशोरावस्था में काफी तीव्र होता है जबकि बाल्यावस्था में धीमा होता है। बालक बालिकाओं में काफी विकास की विभिन्नता देखने को मिलती है।
विकास की दिशा का नियम-
यह सिद्धांत विकास की एक दिशा को निश्चित करता है मनोवैज्ञानिक ने इस सिद्धांत को मस्तकोधोमुखी कहा क्योंकि सर्वप्रथम बालक के सिर का विकास होता है एवं फिर धड़ का उसके बाद हाथ पैरों का होता है।
कुप्पू स्वामी के अनुसार- बालक में विकास
प्रथम सप्ताह ———–> सिर को उठाना
तीन माह ————> नैत्र गति पर नियंत्रण
6 माह ———–> हाथ की गति पर
9 माह ———–> बैठना
1 वर्ष ————> चलना-घसिठना
1 वर्ष बाद ———–> पैरों पर नियंत्रण
डेढ़ वर्ष बाद ———–> स्वयं चलना
विकास की दिशा शिर से पैर की ओर होती है
परस्पर संबंध का नियम-
शिशु के विकास में गुणों में आरंभ ना होकर मात्रा में अंतर पाया जाता है। जबकि बालक की शारीरिक क्रियाओं का विकास होता है तब उसकी बौद्धिक भाषा एवं संवेगात्मक विकास भी होने लगता है।
सतत विकास का नियम-
बालक के विकास का क्रम गर्भावस्था से लेकर निरंतर चलता रहता है, यह गति कभी तीव्र एवं काफी धीमी गति होने लगती है।
वंशानुक्रम एवं वातावरण की अंतःक्रिया का नियम-
शिशु भाभी विकास उसकी क्षमता एवं योग्यता पर निर्भर होता है इन पर वंशानुक्रम एवं वातावरण का प्रभाव होता है इन दोनों के बिना शिशु का विकास नहीं किया जा सकता है।
एकीकरण का सिद्धांत-
बालक पहले पूरे हाथों को फिर उंगलियों को तथा फिर हाथ और उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।
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